ईर्ष्या गुणों को देख नहीं सकती और न ग्रहण कर सकती है !यह उसी व्यक्ति का संहार करती है,जिसके भीतर पनपती है!इससे उपजा द्वेष आत्मा के लिए अहितकार व् आत्म विकास में बाधक है!इससे प्रायः मनुष्य का विवेक भद्र हो जाता है!जहॉ एक दूसरे के स्वार्थ टकराते है वहा ईर्ष्या द्वेष की भावना पनपने लगती है!ईर्ष्या से कभी किसी का भला नहीं होता है !इसका अर्थ ही किसी की सफलता से जल कर अनिस्ट सोचना है !इस प्रकार दूसरो का अनिस्ट चाहने में अपनी ही क्षति होतीहै !भले ही लगे इससे तात्कालिक लाभ हुआ है.परन्तु वास्तव में हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी हानि पहुंचती है!
जिस व्यक्ति का हम बुरा चाहते है उस व्यक्ति को तो पता भी नहीं होता की कोई उसके बारे में कोई विचार रखता है! किसी के प्रति ईर्ष्या का विचार आने पर स्वयं सबसे पहले ईर्ष्या करने वाले का ही रक्त जलता है रश्य के बुरे और उसके विचार नकारात्मक होने लगते है !मन अशांत हो जाता है,जिसका असर दिनचर्या पर पड़ता है! जो दूसरों से ईर्ष्या वश द्वेष भाव रखता है वह स्वयं ही उससे पहले प्रभावित होता है!जब हम जानते है की दूसरो से ईर्ष्या करने पर ,उनका अनिस्ट चाहने पर हमकोक्षति पहुंचेगी ,हमारी आत्मा दूषित हो जाएगी ,हमें शांति नहीं मिलेगी,तो फिर हम क्यों दूसरो के प्रति बुरे विचार रखते है!
यदि हम यह सब जानते हुए भी दूसरो के प्रति ईर्ष्या का भाव और उनके प्रति बुरे विचार रखते है तो समझलीजिये की हम स्वयं को ही बुरा बना रहे है !आग जहां रखी जाती है ,पहले उस स्थान को जलाती है!उसी प्रकार ईर्ष्या के बुरे विचार जिसके मन में रहते है सबसे पहले उसी की हानि करते है ! जितने समय तक ये मन में जमे रहते है , तब तक निरंतर शांति पहुंचने का कराया करते है ! यदि किसी से हमारे मतभेद हो , विरोद विचार हो तो उससे उचित माधयम से आपने विचारो को अभिवकत करना चाहिए,पर मन उसकी घाट बंद लेना और फिर जीवनपर्यत ईर्ष्या और खरोड को लेना स्वाभाव के लिए घातक है !
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